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Friday, June 24, 2022

आइएएस/नजरिया: बाबुओं के ठाठ और ठसक मनोज नाथ

सत्ता के तिलिस्म की गिरफ्त में बेचारा कलेक्टर ऊपर वालों की जी हुजूरी और नीचे वालों पर रौब न गांठे तो क्या करे
https://www.outlookhindi.com/story/column-on-ias-by-retired-ips-of-bihar-cadre-of-1973-batch-manoj-nath-3568
आइएएस पति-पत्नी युगल के कुत्ते की सैर के लिए दिल्ली के त्यागराज स्टेडियम को नियत समय से पहले खाली कराए जाने की घटना ने राष्ट्रीय चेतना को कुछ इस तरह झकझोरा, मानो कोई अप्रत्याशित घटना घट गई हो। विशिष्ट जनों के लिए आमजनों के अधिकारों या सुविधाओं में कटौती तो हमारे जीवन का ऐसा कटु सत्य है जिसे हमने बहुत पहले अंगीकार कर लिया है। फिर ऐसा क्या कहर बरपा? स्लोवानियन चिंतक स्लावो जिजेक का मानना है, “यह सार्वजनिक मंच की विडंबना है, भले हर कोई किसी अप्रिय तथ्य को जानता हो, उसे सार्वजनिक तौर पर कहने से सब कुछ बदल जाता है!” 

यूरोपीय उपनिवेशवादी अपनी आवश्कतानुसार कैसे देसी अभिजात वर्ग गढ़ते हैं, इस संदर्भ में फ्रांज फेनन की पुस्तक द रेचेड ऑफ द अर्थ की प्रस्तावना में ज्यां पॉल सात्र्र ने लिखा कि होनहार और कुशाग्र बुद्धि वाले नवयुवकों को चुनकर उन्हें पश्चिमी संस्कृति, विचारों और अवधारणाओं के गरम लोहे के लाल छड़ से दागकर चिन्हित किया जाता है और उनकी पहचान अपने देशवालों से बिल्कुल अलग कर दी जाती है। उनके पास अपने देशवासियों से कहने को कुछ नहीं बचता। ब्रिटिश शासन ने आइसीएस के ढांचे में इस बात का खूब ख्याल रखा था।

आइसीएस के करिश्माई करतब सत्ता के निर्बाध प्रयोग के दिनों के थे। एंग्लो इंडियन ऐटिच्यूडस: द माइंड ऑफ द सिविल सर्विस में क्लाइव डयूवी लिखते हैं कि बीसवीं शताब्दी में सीमित स्वशासन अधिकार के मिलते ही आइसीएस में विरोध के स्वर उठने शुरू हो गए थे और वे मुखर होकर काले लोगों को सिर पर चढ़ाने के लिए अपनी सरकार को कोसने लगे थे। भारतीय नेतृत्व ने औपनिवेशिक उद्देश्यों की सुचारू रूप से प्राप्ति के लिए नियोजित आइसीइस को आमूल स्वरूप में ग्रहण ही नहीं किया, बल्कि उससे यह आशा भी लगा बैठा कि अब वह जनोन्मुख होकर लोकतांत्रिक उद्देश्यों को धरातल पर उतारने में अहम भूमिका निभाएगा। सरदार पटेल का मानना था कि स्वतंत्र, विचारवान और मुखर अखिल भारतीय सेवा संघीय व्यवस्था का प्रहरी होगा और देश की अखंडता को सुरक्षित रखेगा। अखिल भारतीय सेवा के पदाधिकारियों के लिए इसी आशय से संविधान में ऐसी व्यवस्था की गई थी, ताकि उन्हें सहज ही प्रताडि़त न किया जा सके।

आइसीएस के भारतीय प्रसंस्करण आइएएस से मूल रूप से तीन अपेक्षाएं थीं। पहला, उनका नजरिया स्थानीय पूर्वाग्रहों से कलुषित नहीं होगा, अत: वे स्थानीय राजनैतिक रुझान और संकीर्णता से मुक्त होंगे। दूसरा, केंद्र और राज्यों में पदस्थापित रहकर संघीय व्यवस्था को सबल करने हेतु वे केंद्र और राज्यों में बेहतर समन्वय स्थापित करेंगे और तीसरा, कलेक्टर के रूप में वे अपनी सरकारों के संकटमोचन होंगे।

लेकिन सरदार पटेल की अपेक्षाओं पर आइएएस कितना खरा उतरा? केंद्र और राज्य सरकार के कटु संबंधों के मद्देनजर पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री के साथ-साथ मुख्य सचिव भी प्रधानमंत्री की आपदा नियंत्रण बैठक से वॉकआउट कर गए। किसी भी नौकरशाह के लिए यह ‘गुरु गोबिंद दोउ खड़े काको लागूं पांय’ जैसी परिस्थिति में कोई फौरी निर्णय लेना कठिन था। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के बीच किसे अपमानित करना है और किस के अहंकार को तुष्ट करना है, इससे बढ़कर असमंजस की स्थिति क्या हो सकती है? लेकिन, पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव सहज भाव से निकल गए क्योंकि दीर्घजीवी सरकारों में आइएएस नौकरशाह स्थानीय शासन के अभिन्न अंग बन चुके हैं। बलराज कृष्ण ने सरदार पटेल पर अपनी पुस्तक में जिक्र किया है कि पटेल और जवाहरलाल नेहरू में निजाम को लेकर तल्खियां चरम पर थीं। इसी संदर्भ में एक सभा में पटेल ने नाराज होकर एक मीटिंग से वॉकआउट किया। वी.पी. मेनन, जो पटेल के सचिव थे, उनके जाने के बाद कुछ देर बैठे रहे लेकिन थोड़ी देर बाद अनुमति लेकर वे भी निकल लिए। लेकिन हद तो तब हो गई जब केंद्र में बैठे आइएएस पदाधिकारियों ने कुछ ही दिनों पहले इस पदाधिकारी, जिसके सेवा विस्तार की स्वीकृति दी गई थी, उसे वापस बुलाने का आदेश दे दिया। फिलिप वुडरुफ ने आइसीएस के महिमामंडन में मेन हू रुल्ड इंडिया में लिखा है कि ‘‘यह एक अलग ही प्रजाति थी। ...ये अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में काम करते थे, लेकिन सबसे बड़ी बात कि ये इंटेलेक्चुअल थे।’’ इंटेलेक्चुअल की जिम्मेवारी होती है कि वह सत्ता को सच का आईना दिखाए। केंद्र और राज्य सरकार के बीच टकराव की अजीबोगरीब स्थितियां इसलिए हो रही हैं क्योंकि अधिकांश पदाधिकारी अपनी-अपनी सरकारों को सही, पर अप्रिय परामर्श देने का साहस नहीं कर पा रहे। 

हरफनमौला कलेक्टर ब्रिटिश शासन में अश्वेत लोगों के माई-बाप सरकार का मूर्त स्वरूप था। आज भी अन्य कार्यों के अतिरिक्त स्थानीय स्तर पर जिलाधिकारी को नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट, 2005 के तहत असीम शक्तियां एवं संसाधन प्राप्त हैं, लेकिन कोविड आपदा के संदर्भ में राष्ट्रीय स्तर पर जो कुव्यवस्था हुई, वह अवर्णनीय है। ऐसा नहीं कि यह एक असंभव या असाध्य कार्य था। एक-दो कलक्टरों ने गजब की प्रतिबद्धता दिखाई। प्रवासी मजदूरों की घर वापसी की त्रासदी को इतिहास याद रखेगा। लेकिन नौकरशाही की अक्षमता से ज्यादा उनकी असंवेदनशीलता जनमानस को आहत कर गई। सैकड़ों मील पैदल मार्च करते हुए हुजूम में एक परिवार अपने पहिया वाले सूटकेस पर अपने बच्चे को बिठाकर खींच रहा था। इस तस्वीर ने देश के मर्मस्थल को छू लिया था मगर एक आइएएस पदाधिकारी ने चुटकी ली कि उसके पिता भी उसे अक्सर एयरपोर्ट पर ऐसे ही खींचते थे। हवाई यात्रा की विलासिता और खून जलाने वाली धूप में सैकड़ों मील प्राण-रक्षा के लिए चलने की विवशता में भेद न कर पाने वालों के बारे में ही यह उक्ति है कि उनके पास अपने देशवासियों से कहने को कुछ नहीं है। एक वायरल ऑडियो में स्वास्थ्य सचिव ने एक डॉक्टर को अपनी बहुत गंभीर समस्या सीधे उनसे कहने की धृष्टता से नाराज होकर उन्हें जेल भेजने की धमकी दे दी। लेकिन मदांधता और क्रूरता के लिए अगरतला के तत्कालीन डीएम को बहुत दिनों तक याद किया जाएगा, जिन्होंने दूल्हे के साथ बारात को भी जमकर पीट दिया था। जुमा-जुमा आठ रोज सेवा में आए हुए एक प्रशिक्षु आइएएस के तेवर अब तक सबको याद हैं, जो एक अस्पताल में मरीज के बेड पर पैर टिकाए खड़ा था।

खास बनने की ट्रेनिंगः मसूरी की लाल बहादुर शास्त्री नेशनल अकादमी जहां आइएएस का प्रशिक्षण दिया जाता है

खास बनने की ट्रेनिंगः मसूरी की लाल बहादुर शास्त्री नेशनल अकादमी जहां आइएएस का प्रशिक्षण दिया जाता है

कोविड के संक्रमण से ऐसे अधिकारी अनिभिज्ञ तो नहीं होंगे, लेकिन संभवत: खास होने के ख्याल को लाल छड़ से उन्हें प्रशिक्षण के दौरान ही दाग दिया जाता है। आइएएस ने बदली परिस्थितियों के अनुसार अपने आपको ढाला तो है पर उसकी अनुवांशिक विरासत और गुण सूत्र वही हैं। आइएएस में चुन लिए जाने के बाद आम जनता के साथ बराबरी के स्तर पर संवाद स्थापित करना उनके लिए कठिन हो जाता है। देखें तो दोष उनका नहीं, दोष इस समाज का है। पिछले साल बिहार का एक अभ्यर्थी आइएएस की परीक्षा में टॉप कर गया। मुख्यमंत्री ने उसे माला पहनाया और पूरा बिहार हफ्ते भर उसकी प्रशस्ति-गान में लगा रहा। 

दिल्ली के मुखर्जी नगर के ‘तपोवन’ में देश का सबसे प्रतिभावान युवा आइएएस का परम पद प्राप्त करने की कठिन साधना करते-करते अधेड़ हो जाता है। आइएएस वर की प्राप्ति हेतु उनकी तपस्या को सफल बनाने के लिए धन कुबेर, पदाधिकारी, मंत्री या सांसद पिता करोड़ों की थैली लेकर आइएएस के पीछे भागने लगते हैं। सोशल मीडिया पर बस आप आइएएस लिख दीजिए, हजारों फॉलोअर वैसे ही हो जाएंगे। फीता काटने के लिए, दोस्ती गांठने के लिए लोग लालायित रहेंगे। जब तक आइएएस अलभ्य है तब तक वह निंदनीय है। अगर उससे संपर्क, साहचर्य या सान्निध्य मिल जाए तो वह देवतुल्य। आइएएस की उपादेयता घट रही है लेकिन उसके प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा है।

मैं कई बार सिविल सर्विस परीक्षा के इंटरव्यू बोर्ड का सदस्य रहा। इतना क्वॉलिफाइड होने के बाद सिविल सर्विस में क्यों आना चाहते हो, पूछे जाने पर अधिकांश परीक्षार्थी कहते हैं, “मैं जब जिले का कलेक्टर बनूंगा तो अमुक ढंग से जनता की सेवा करूंगा।” तो मैं ठिठोली करता हूं, बंधुवर, बमुश्किल आप कम्पीट कर पाएंगे। अगर कम्पीट कर भी जाएं तो कोई गारंटी नहीं कि आपको आइएएस मिलेगा, अगर आइएएस मिल भी गया तो मुश्किल से एक या दो टर्म कलेक्टर रह पाएंगे। बाकी के 25-30 साल के बारे में कभी सोचा है आपने? सिविल सर्विस परीक्षा का मतलब आइएएस और आइएएस का मतलब कलेक्टर! हर किसी के अंदर एक कलेक्टर बैठा है जो आइएएस बनकर उससे आत्म साक्षात्कार चाहता है।

वह जमीन पर बैठ कर मिड डे मील चख ले तब खबर है, स्टेडियम में कुत्ता घुमा ले तब खबर, उसकी संपत्ति विवरणी में नकदी में एक भी रुपया न हो तब भी खबर और एक सौ पचास करोड़ रुपये उसके सीए के पास निकल जाए तब भी खबर, अस्पताल के बेड पर पैर रखे दे तब भी खबर है, अगर किसी बच्चे के सिर पर हाथ रख दे तब भी खबर! सत्ता के तिलिस्म की गिरफ्त में इस समाज के लिए कलेक्टर ही खबर है। क्या करे बेचारा कलेक्टर?

manoj nath

(लेखक 1973 बैच के बिहार काडर के सेवानिवृत्त आइपीएस अधिकारी हैं। विचार निजी हैं।)

Sunday, June 19, 2022

MODI AS IDEOLOGY

I held back this post which was written at the height of farmers' agitation and to that extent it is a little dated . But the violent protests over the Agniveer policy has firmed my views and provides me the impetus to share it now .
Initially I was also skeptical about the idea of ultrashort term service in the military but better informed as now I am, I think it is quite in consonance with the trend all over the world. A respected military officer and an objective strategic analyst like general R W Panag , considers the idea worth a try. Of course , it needs to be fine-tuned to suit local conditions but per se it is not something to be dismissed out of hand.
In Bihar, specially, employment in the government sector is the overriding concern of young men. We have experimented with this idea of using the education sector as a generator of mass employment - with spectacular results. Millions of unemployable illiterates employed as teachers have mass produced many more millions of their own kind, so much so that “Educated in Bihar”, has become a statutory warning. But the military is a matter not to be fooled around with .
And yes, dear Biharis , burning trains will not hurt Mr. Modi; BJP can be defeated on the electoral battle field only , not on city squares.
MODI AS IDEOLOGY
Mr. Modi wields a charismatic authority, in the strict Weberian sense of the term, over his large number of followers. Adored by them as a man of exceptional skills , exemplary in many ways , even infallible, Modi Hai To Mumkin Hai, has been elevated to a gospel truth. As his stranglehold on power becomes firmer Mr.Modi himself has now become the ideology, an ideology without words .
Karl Mannheim thought that ideology acts as an unseen glass that systematically distorts our perception of the social world. Marx holds that it relieves the masses of the burden of thinking for themselves, induces a state of mind in which conviction precedes the validating facts .A basic, constitutive naïveté is an essential requirement ,which Modi’s followers possess in abundance. The stronger the belief in their leader or the cause he espouses the weaker become the rational, critical faculties and the ability to pose pertinent questions. So a very large section of Indians refuse to see the tree for the wood , refuse to see anything else other than what Mr. Modi wants them to see. Strongly held beliefs after a period of time become internalised to such an extent that attacks on these beliefs are treated as attacks on the person . It is not uncommon for friends of fifty years standing to come to blows because of their divergent views on Modi. The Modi ideology is deeply divisive.
His democracy is built around the idea of absolute and unquestioned obedience. New and ideologically compliant forms in name of digital democracy have been built and our civic and even private lives are under ever increasing bureaucratic gaze . His style of governance calls for a voluntary suspension of disbelief, it enforces obligations without explanations. The handling of Covid is an emblematic example. We lighted candles , we clapped , we went into suspended animation because of the most brutal lockdown , marched with suicidal resolve in face of hurtling danger of the second wave of Covid, ignoring Covid protocol to attend election rallies or Kumbh snan but never questioned even once. There is not to reason why , there is but to do and die!
There is a wide, irreconcilable divergence between the reality and the official views on several policies - demonetization, the Chinese crisis , GST and handling of Covid . But of late, notwithstanding their belief, there is considerable disquiet over his handling of Covid, especially the second wave has spread to some section of his followers as well. The truth managers are quite aware of losing many of those who voted for the party in a state of happy mindlessness . So in order to hold them tethered to their beliefs , illusion becomes the chief reinforcer , drama becomes the key, compelling and startling images— “absolute, uncompromising and simple”—that “fills and bests the mind”. As Gustave Le Bon said in his book , The Crowd: A Study of the Popular Mind, the “art of impressing the imagination of crowds is to know at the same time the art of governing them.” To keep the hope in impossible promises alive, chicanery and mendacity have become an important part of statecraft, propaganda has become the main pillar of government. They are experimenting with an applied epistemology which Theodore Adorno once described as , “a lie experienced as truth.” Hand in hand with this strategy goes the negative PR campaign of tarring those opposed to official point of view , a specific and compelling necessity.
But then Mr. Modi is much larger than that. He not only commands his followers and elicits their responses whichever way he wishes ,he holds complete sway over the minds of even those who are opposed to him , the “liberal, “ left ,” “moderate” thinking section. Opposition to Modi, irrespective of the merit of the case , is their ideology , and finding reasons for all that is wrong with this country because of Modi is the chief reinforcer of the belief of the followers of this ideology.
The farmer’s agitation is an emblematic example. As far its economic benefits are concerned , economist and experts have not been able to find much fault with the farmer policy of the government. It was part of Congress agenda which the BJP had vociferously opposed it, just as Congress was stolid in its defence. So the farm bill is not a farmers’ issue but a political issue. Had Congress been able to pass the farm bill the cue lines would have been different and BJP cadres would have been sitting in solidarity with farmers behind the barricade. Exploiting their proximity to national capital, farmers , mostly from Punjab and Haryana, Western UP are bivouacking for several months on the borders of Delhi and . To this they have added - and carried out on 26th January - the threat of marching to Delhi and holding it to ransom. A national capital under siege would make a global headline any day. As Slavoj Zizek, the maverick Slovenian philosopher said , "The actual pressure must be made more pressing by adding to it consciousness of pressure, the shame must be made more shameful by publicizing it.”
Both the parties employ the logic of today’s populism which can be characterized as “democratic fascism.” Farmers invoke the democratic right to protest, which is fair enough but to claim that democracy and legitimacy is limited to their side is not quite democratic . Their refusal to back down unless the government is brought down to its heels is how “fascism that smells like democracy” operates today.
Critical debate , one of the key components of an open society has now quietly yielded to a phenomenon called guided apophenia .
Apophenia earlier identified as an affliction of a schizophrenic patient who could perceive meaningful connections between unrelated things, has now been normalized as political behaviour. In Indian politics Mrs. Indira Gandhi’s habit of attributing every political difficulty to “foreign hands” and later on to the ISI is an old habit but people took it with a pinch of salt. But now all of us cutting across political divide believe in conspiracy theories with the conviction of a schizophrenic.
The farmers say that the government is sold out to Adani and Ambani and this bill is only to prepare for corporatisation of the farm sector and the immiseration of farmers.( This is quite plausible but where is the evidence?) Government, and the media conscripted to government , have not lagged behind in finding the real reason for the protest : it is financed and orchestrated by Khalistanis and their Pakistani and Chinese masters. Pakistan, China and proponents of Khalistan are enemies of India and anything that can discomfit the country is fair game for them, but where is the evidence?). As Alain Badieu said :“Tout ce qui bouge n’est pas rouge” – all that moves (leads to unrest) is not red. ”
The second example which is an even more convincing proof that those opposed to Modi have embraced the Modi ideology is the anti-vaccine movement which finds its culmination in Prashant Bhushan’s open opposition to vaccine . To quote just one highly irresponsible tweet. “ These mass protests against vaccine madness are now taking place across the world against vaccine mandates , lock downs and mask mandates are now taking place across the world . Despotic rulers are using these measures to keep their people under subjugation after it is clear that these don’t work . Time for mass protests in India too.” The deaths due to oxygen were equally the fault of the state governments but they are missing from the charge sheet against them and Modi finds himself as the sole accused.
At the height of cultural cold war, the non-communist left intellectuals found themselves pitted against another fanaticism of a particular variety, its mirror image. As the American literary critic and essayist Philip Rahv said "Anti-Stalinism has become almost a professional stance. It has come to mean so much that it excludes nearly all other concerns and ideas, with the result that they are trying to turn anti-Stalinism into something which it can never be: a total outlook on life, no less, or even a philosophy of history." Modiphobia becomes a total outlook on life. Mr Modi must be loving it. To become the sole point of discourse in a democracy of 1.4 bn people with infinitely divergent interests is something unprecedented in history.
GS Seda, Shyamal Vinod and 14 others
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