देश में व्यक्ति-पूजन का जो दौर चल पड़ा है इस सन्दर्भ में यह तथ्य ओझल हो गया है कि वह व्यक्ति वस्तुततः क्यों पूजित हुआ? हम भारतीयों की तो बस एक ही आराध्या हैँ - भारत माता। जो भारत की अखण्डता की रक्षा करेगा वह हमारी नज़रों में सर्वश्रेष्ठ होगा। जो निजी राजनैतिक स्वार्थ या अपनी छवि धूमिल होने के डर से राष्ट्र के हितों के विरुद्ध कोई निर्णय लेगा , वह चाहे जो भी हो , उसके प्रति हमारी कोई निष्ठां नहीं होगी. यदि देश किसी व्यक्ति में अपनी संपूर्ण आस्था व्यक्त करता है तो वह भी अपने समर्थकों पर विश्वास करे, उन्हें राज़दार बनाये. मैं मान सकता हूँ की समसामयिक परिस्थितियों में भारत चीन से युद्ध नहीं लड़ सकता , इसके लिए अनेक सामरिक एवंअन्य कारण हो सकते हैं परन्तु उसके लिए ऐतिहासिक तथ्यों की बलि चढ़ दी जाय , हमारे जवानों के बलिदान की परिस्थितयों को विवादित कर दी जाय , यह अस्वीकार्य है। यह कहना कि चीन ने अतिक्रमण किया ही नहीं यह अपनी नाकामियों पर पर्दा डालने से विलग आने वाली पीढ़ियों के साथ अन्याय होगा. वीरगर्भा भारत कभी तो निस्स्वार्थ भाव से मातृभूमि पर उत्सर्ग होने वाले नेता पैदा करेगी,कभी तो एक दूसरा मानेकशॉ पैदा होगा। लेकिन जब हम खुद अपना दवा खारिज कर देंगे तो क्या बचा? कल मैंने अपने वाल पर अपनी पीड़ा व्यक्त की थी। १० वर्ष की उम्र में ही ६२ के ज़िल्लत और भयंकर अपमान का दंश झेलने वाली पीढ़ी यह आस लगाए बैठी थी कि शायद हम लोगों के जीवन काल में ही उस अपमान का बदला ले सकें। साथ ही मन के कोने में यह भी आशंका थी की कही और दुर्दिन न देखना पड़े। वह भी देख ही लिया।I
1 comment:
Sir, with our military tech at inflection point, here is a key lesson from the past I wish to share:
In autumn 1982, Kalam presented his findings to the defence minister at that time, R Venkataraman. If Kalam was a hard-driving visionary, so too was Venkataraman. Dismissing all talk of a "phased programme", he ordered all programmes to be taken up simultaneously. The Integrated Guided Missile Development Programme was formally sanctioned in July 1983, and funds were pre-allocated for a 12-year period up to 1995.
Those were heady days for the DRDO's idealistic young scientists, buoyed by the 1971 victory over Pakistan and the "peaceful nuclear experiment" of 1974. In 1972, two young IIT graduates, VK Saraswat and Avinash Chander joined the DRDO just ten days apart. They were amongst more than a hundred young scientists who joined the DRDO's missile complex after graduating from premier institutions like the IITs, and Jadhavpur University. Within three years, Saraswat was heading propulsion development, while Chander spearheaded the development of navigation and guidance systems.
"Wherever we have worked without the option of import - be it on strategic missiles, nuclear weapons, atomic energy or the space programme - we have achieved self-reliance. In the super-secret world of electronic warfare, where import is not an option, we have built world-class systems. We should ourselves ban imports, and we will indigenise. Necessity is the mother of invention."
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